वोटर लिस्ट में गड़बड़ी और कथित वोट चोरी को लेकर विपक्ष द्वारा उठाए गए आरोपों पर केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कड़ा रुख अपनाते हुए विपक्ष को संवैधानिक मर्यादाओं की याद दिलाई है। उन्होंने विपक्ष द्वारा संसद में किए जा रहे हंगामे पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ऐसे मुद्दों पर संसद नहीं, बल्कि चुनाव आयोग ही उपयुक्त मंच है।
"चुनाव आयोग है स्वायत्त संस्था"
किरण रिजिजू ने साफ तौर पर कहा,
"चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है। उसमें जो भी सवाल हैं, उनका जवाब उसी मंच पर दिया जाना चाहिए। संसद में हंगामा करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि हम चुनाव आयोग के प्रवक्ता नहीं हैं।"
उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब चुनाव आयोग और कांग्रेस पार्टी के बीच कोई संवाद या विवाद है, तो उसकी प्रक्रिया संविधान में निर्धारित है। ऐसे में संसद में राजनीतिक शोरगुल और बहस सिर्फ माहौल को बिगाड़ने का काम करता है।
"गंभीर विषयों पर गंभीर रवैया जरूरी"
किरण रिजिजू ने विपक्ष पर यह आरोप भी लगाया कि वे संवेदनशील और गंभीर विषयों को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका कहना था कि
"अगर वाकई विपक्ष को लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता को लेकर चिंता है, तो उन्हें संबंधित मंचों पर अपनी बात रखनी चाहिए। संसद का मंच नीति निर्माण और व्यापक बहस के लिए है, न कि आयोग के कामकाज पर सवाल उठाने के लिए।"
विपक्ष का आरोप
दरअसल, बिहार में 65 लाख से ज्यादा वोटर्स के नामों को वोटर लिस्ट से कथित रूप से हटाए जाने के मुद्दे को लेकर विपक्ष ने हाल ही में संसद में जोरदार हंगामा किया था। विपक्षी दलों ने इसे "वोट चोरी" और "लोकतंत्र के साथ खिलवाड़" बताया था। उनका दावा है कि चुनाव आयोग और सरकार के बीच मिलीभगत से यह किया गया, ताकि चुनावों में एकतरफा लाभ उठाया जा सके।
राजनीतिक गर्मी और संवैधानिक ठंडक
यह मुद्दा ऐसे समय पर उठा है जब देश में आगामी चुनावों को लेकर राजनीतिक वातावरण गर्म हो रहा है। ऐसे में वोटर लिस्ट से नाम हटाए जाने जैसे मुद्दे और भी ज्यादा राजनीतिक रूप से संवेदनशील बन जाते हैं। लेकिन किरण रिजिजू की टिप्पणी यह संकेत देती है कि सरकार इस मुद्दे को संवैधानिक प्रक्रिया के तहत हल करना चाहती है, न कि राजनीतिक बयानबाज़ी से।
निष्कर्ष
केंद्रीय मंत्री की टिप्पणी विपक्ष के लिए एक स्पष्ट संदेश है—संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करें और मुद्दों को सही मंच पर उठाएं। चुनाव आयोग जैसे संस्थान लोकतंत्र की रीढ़ हैं, और उनके कामकाज पर अगर कोई सवाल है, तो उसका समाधान भी संवैधानिक दायरे में ही ढूंढा जाना चाहिए, न कि संसद को संघर्ष का मैदान बनाकर।
अब देखना यह है कि विपक्ष इस सलाह को किस रूप में लेता है—राजनीतिक आलोचना के तौर पर या संवैधानिक चेतावनी के रूप में।